बृज की होली विश्व प्रसिद्ध क्यों मनाई जाती है? जानिये बृज की होली के विभिन्न रूपों के बारे में

सनातन धर्म में हिंदू संस्कृति की परंपरा से जुड़ी ‘बृज की होली’ का अपना एक अलग ही आनंद होता है। बृज की होली बहुत ही अलग प्रकार से खेली जाती है। यह होली मथुरा, वृंदावन और बरसाने में सबसे अधिक हर्षोल्लास के साथ मनाई जाती है।

यहाँ होली एक परंपरा के तरह मनाई जाती है। इस परम्परा में विभिन्न प्रकार के सांस्कृतिक कार्यक्रम, पारंपरिक गीत और नृत्य शामिल होते हैं। बृज की होली इसलिए विश्व प्रसिद्ध है क्योकि इस में भगवान श्री कृष्ण के आशीर्वाद के साथ-साथ हिन्दू संस्कृति के उत्सवों की छवि उभर के आती है और आनंदित करने वाले रंगारंग आयोजन होते है।

ऐसा कहा जाता है कि यदि किसी को होली में रंगों से खेलना पसंद नहीं है तो भी जीवन में एक बार बृज की होली उसे अवश्य देखना चाहिए क्योकि यहाँ के कण-कण में होली के दिन सुख और आनंद की अनुभूति होती है। इस होली की अलौकिक महिमा का गुणगान पूरे भारतवर्ष में ही नहीं होता बल्कि यह विदेशों में भी अत्यधिक प्रसिद्ध है।

यही मुख्य वजह है कि लाखों की संख्या में श्रद्धालु देश विदेश से बृज की होली को देखने और खेलने उमड़ पड़ते है। यहां पर होली मनाने के लिए लोगों के आने का सिलसिला होली के एक हफ्ते पहले से ही शुरू हो जाता है। यहाँ रंगों का उत्सव 40 दिनों तक चलता है।

बृज की होली

जिसकी तैयारियां बसंत पंचमी के दिन से शुरू होकर रंग पंचमी पर समाप्त होती  हैं। लाखों की मात्रा में श्रद्धालुओं और सैलानी होली खेलने के लिए यहाँ पर पहुंच जाते हैं और इस दिन वहां पर रंगारंग कार्यक्रम करने के लिए भजन मंडली के लोग भी पहुंचते हैं जो बड़े उत्साह के साथ होली का यह रंगोत्सव मनाते हैं।

बृज की होली के विभिन्न रूप

बृज की होली के समस्त रूपों का आनंद लेने और रंग खेलने लोग दूर-दूर से एकत्रित होते है क्योकि बृज में फूलों वाली होली, रंग-गुलाल वाली होली, लट्ठमार होली, छड़ीमार होली, लड्डू होली, दाऊजी का हुरंगा, रंग पंचमी इत्यादि होली मनाई जाती है।

बृज की होली में लट्ठमार होली सबसे ज्यादा विख्यात है। पुराणों के अनुसार, भगवान कृष्ण ने राधा रानी और गोपियों के साथ द्वापरयुग में लट्ठमार होली खेलकर इस परंपरा का आरम्भ किया था। बृज की होली, होली का विस्तार स्वरूप माना जाता है। तो चलिए जानते है इन होली के बारे में विस्तार से और ये कब से आरम्भ हो जाती है।

इस बार शुक्रवार से होली मनाने की शुरुआत, फूलों वाली होली से हो चुकी है। होली के त्यौहार का नाम आते ही सबसे पहले भगवान श्री कृष्ण की नगरी मथुरा- वृंदावन का ध्यान आता है। आज भी मथुरा वृन्दावन की होली में, द्वापर युग में भगवान श्री कृष्ण के द्वारा खेले गए फूलों की होली की अलौकिकता, मधुरता और रमणीयता की अनुभूति होती है।

इस वर्ष भी गोकुल के रमणरेती आश्रम में रंगों और फूलों से होली खेली गई है। इस होली को प्राकृतिक होली भी कहा जाये तो गलत नहीं होगा। बड़ी संख्या में लोगों ने यहां आकर होली के त्यौहार का आनंद लेना शुरू कर दिया है। फूलो की होली, दिव्यता की अनुभूति कराती है।

दो दिन बाद, दिन रविवार से बरसाना के प्रसिद्ध श्रीजी मंदिर में लड्डू होली भी खेली गई है। यह होली बरसाने की बहुत ही प्रख्यात होली है। लड्डू होली खेलने के लिए नंदगांव के पंडों को सबसे पहला निमंत्रण दिया जाता है। कृष्ण भक्त यह निमंत्रण देकर लौटने पर बरसाने के निवासियो को बताते है कि कन्हैया ने होली खेलने के आमंत्रण को स्वीकार कर लिया है और वो होली खेलने आ रहे है।

इस बात को सुन कर बरसाने के लोगो के मन में खुशियों की लहर उमड़ पड़ती है और इस प्रकार भक्ति भावना में लीन होकर, भजन-कीर्तन करते हुए और फूलों को एक-दूसरे पर डालकर, लड्डू खिलाकर बधाईया देते हुए लड्डू होली का उत्सव मानते है।

लट्ठमार होली, उसके अगले दिन यानी सोमवार को बरसाने में और उसके अगले दिन मंगलवार को नंदगांव के नंद भवन में मनाया गया है। एक पारम्परिक उत्सव के रूप में बरसाने और नंदगांव में लट्ठमार होली खेली जाती है।

इसमें स्त्रियां, पुरुषों पर लाठी बरसाती हैं। इस होली का महत्व ही यही है कि कोई भी इस बात का बुरा नहीं मानता है और इसको खेल के रूप खेलते हुए हर व्यक्ति आनंद लेता है। है। इस शरारत भरी होली को राधा-कृष्ण के प्रेम का प्रतीक माना गया है।

द्वापर युग में भगवान श्रीकृष्ण और राधा रानी ने अपने सखी-सखा के साथ मिलकर इस लट्ठमार होली की अद्भुत परम्परा की शुरुआत प्रेम भरी शरारत और हंसी मजाक के तौर पर शुरू की थी। जो आज भी उसी गरिमा और महत्व के साथ खेली जाती है। पुरुष पारंपरिक पगड़ी और धोती पहनते हैं और स्त्रियाँ पारम्परिक लहंगा और चुनरी पहनती है।

२० मार्च दिन बुधवार को वृंदावन में रंगभरी होली मनायी गयी है जो एकदशी तिथि पर पड़ती है और यह भगवान विष्णु को समर्पित होती है। हिन्दू धर्म पुराणों के अनुसार, भगवान श्री कृष्ण को विष्णु अवतार माना जाता है।

इसलिए वृन्दावन में इस दिन श्री राधाकृष्ण की पूजा अर्चना करके, उनके चरणों में रंग-गुलाल को अर्पित करने के पश्चात हवा में रंग और गुलाल उड़ाकर रंगभरी होली की शुरुआत की जाती है और इस प्रकार वहां के लोग भक्ति भाव से भगवान के साथ रंगभरी होली मनाते है।

इसके पश्चात २१ मार्च दिन बृहस्पतिवार गुरुवार को गोकुल में छड़ीमार होली मनाई गयी है। छड़ीमार होली विश्वविख्यात है। इसका आनंद लेने के लिए देश से ही नहीं विदेश से भी पर्यटक गोकुल आते है। हम सब को पुराणों के माध्यम से ज्ञात है कि ये जगह भगवान श्री कृष्ण का निवास स्थान है और इस दिन की तैयारी गोकुल वासी एक महीने पहले से ही शुरू कर देते है।

छड़ी मार होली, भगवान श्री कृष्ण के प्रति प्रेम भाव को प्रदर्शित करती है। श्री कृष्ण भगवान बहुत ही नटखट और शरारती थे। गोपियों को बहुत परेशान करते थे तो उनको सबक सिखाने के लिए गोपिया छड़ी उठाकर उनके पीछे-पीछे भागती थी सिर्फ उनको डराने के लिए।

तभी से इस परंपरा का आरंभ हुआ और आज भी इसी परंपरा का पालन होता है। इस दिन भगवान श्री कृष्ण को राजभोग का प्रसाद चढाया जाता है और उनके प्रति अपनी भक्ति भावना को व्यक्त करते हुए छड़ीमार होली मनाई जाती है।

२२ मार्च दिन शुक्रवार को गोकुल में रंगोत्सव मनाया गया है इस दिन की होली को आस्था की होली भी माना जाता है। इस होली में बृजवासी के साथ देश विदेश से आये भक्तगण और साधु संत भगवान श्री कृष्ण की भक्ति भावना में झूम उठते हैं। कोई फूलों की होली खेलता है तो कोई खूब अबीर गुलाल उड़ाता हैं।

२४ मार्च दिन रविवार को मथुरा और वृंदावन में होलिका दहन का त्योहार बड़ी धूमधाम से मनाया जायेगा। होलिका दहन के कुछ दिन पहले से ही इसकी तैयारियां बड़ी जोरो के साथ की जाती हैं। इस दिन लगभग 10-15 फीट ऊंची होलिका बनायीं जाती है। आसपास के गांव के लोग होलिका दहन के लिए उपले लेकर आते हैं परिक्रमा करते है और उत्साह के साथ होलिका दहन मनाते है।

२५ मार्च दिन सोमवार को पूरे बृज में होली (बड़ी होली) का उत्सव बहुत ही हर्ष के साथ मनाया जाएगा। यह होली बृज में धुलंडी होली के रूप में बड़े उमंग उत्साह के साथ मनाई जाएगी। इस दिन बृजवासी अबीर, गुलाल, टेशू के फूल, बृज की धूल और रंग-बिरंगे पानी के साथ जम कर मौज मस्ती के साथ नाचते गाते हुए मिठाईया खाते हुए बृज उत्सव (होली) मनाते है।

२६ मार्च दिन मंगलवार के दिन दाऊजी का हुरंगा का त्यौहार मनाया जाएगा। दाऊजी का हुरंगा मथुरा के बलदेव गांव में खेला जाता है जिसका नाम भगवान श्रीकृष्ण के बड़े भाई भगवान बलराम (बलदेव ) या दाऊ जी के नाम पर है। दाऊ (बड़ा भाई) स्थानीय नाम है।

भगवान बलराम को शेषनाग का अवतार माना जाता है। ऐसी मान्यता है कि इस होली के दौरान भगवान बलराम, रासलीला में भगवान कृष्ण का साथ देते थे। माना जाता है कि हुरंगा, होली का अत्यधिक आक्रामक रूप होता है केवल भगवान बलराम जी ही इसे खेल पाते है।

हुरंगा खेलने की आज्ञा मंदिर में सिर्फ गोस्वामी कल्याण देव जी के वंशजों को ही प्राप्त है। कल्याण देव जी के वंशजों द्वारा हुरंगा खेलना एक परंपरा है क्योंकि ये उनका अधिकार माना गया है। वल्लभ कुल संप्रदाय के आचार्य गोकुल नाथ जी ने बलदेव गांव में देवता की मूर्ति स्थापित की थी।

धुलंडी या बड़ी होली के बाद हजारों की संख्या में श्रद्धालु होली खेलने और देखने आते हैं। होली को बलराम जी (भगवान कृष्ण के बड़े भाई) के लिए सबसे महत्वपूर्ण त्योहार माना जाता है। भागवत पुराण में लिखा है कि एक बार बलराम जी अकेले (कृष्ण के बिना) बृज लौट आए और गोपियों के साथ रास-लीला खेलने लगे। उस दिन से ये परंपरा भगवान बलराम को याद करने के लिये ही, प्रत्येक वर्ष फाल्गुन महीने की पूर्णिमा के दो दिन बाद दाऊजी का हुरंगा मनाते है।

30 मार्च को शनिवार के दिन रंग पंचमी पर ‘रंगनाथ जी मंदिर’ में होली खेली जाएगी और इसी दिन के साथ ब्रज की होली खेलने पर विराम लगेगा। पुराणों के अनुसार, रंग पंचमी के दिन भगवान श्री कृष्ण ने राधा रानी के साथ गुलाल से जम कर होली खेली थी।

मान्यता है तभी से रंग पंचमी के दिन होली खेलने की परंपरा प्रचलित है। इस दिन राधा रानी और भगवान श्री कृष्ण की विधि विधान से पूजा करने के बाद फिर उन्हे बाद गुलाल अर्पित करके रंग पंचमी के साथ होली का समापन किया जाता है।

निष्कर्ष

भारत में होली का त्यौहार बड़ी धूमधाम से मनाया जाता है। भगवान श्री कृष्ण के बृज की होली को देखने के लिए देश ही नहीं विदेशों से भी लोग उत्सुक रहते है। बृज की होली की महिमा का मंडन जितना किया जाये उतना ही कम है।

भारत देश के कई हिस्सों में रंगों से होली खेली जाती है किन्तु सिर्फ एक बृज ऐसी जगह है जहां रंगों के अलावा फूलों से, लाठी से इत्यादि भिन्न -भिन्न प्रकार से होली खेलने का चलन है। बाकी जगह होली खेलने का चलन एक दिन का माना जाता है वही मथुरा, वृंदावन और गोकुल में पूरे एक हफ्ते तक होली खेली जाती है इसलिए वहां के हर दिन की होली की विशेषता देखते ही बनती है।