शिवलिंग की उत्पत्ति कैसे हुई?

शिवलिंग के नीचे क्या है?

भगवान शिव का लिंग रूप उनकी दिव्य ऊर्जा का स्वरूप है जो अखिल विश्व ब्रम्हांड का प्रतिनिधित्व करता है और जिस मूर्तितल पर वह टिका है, जिसे योनि या पीठम भी कहते हैं वह ब्रम्हांड को धारण करने वाली शक्ति का प्रतिनिधित्व करती है। शिवलिंग को संसार का जनक माना जाता है और पुराणों में यह वर्णित है कि शिवलिंग में सम्पूर्ण देवता समाए हुए हैं। पुराणों के अनुसार, शिवलिंग का ना तो कोई आदि है और ना ही कोई अंत।

हमें हमारे प्राचीन वेद और पुराण जैसे ज्ञान के भंडारों पर विश्वास करना चाहिए क्योंकि यह तपस्यारत ऋषियों द्वारा लिखे गए थे और इस बारे में तो आज के युग के हम सभी मनुष्य एकमत हैं कि वह युग श्रेष्ठ सिद्धि एवं ज्ञान को प्राप्त करने वाले ऋषियों का युग था। आइये शिवलिंग के बारे में थोड़ा और ज्ञान प्राप्त करते हैं।

शिवलिंग की कहानी क्या है?

शिव पुराण और लिंग पुराण में वर्णित एक कथा के अनुसार, सृष्टि के प्रारम्भ में दो ईश्वरीय शक्तियों, भगवान विष्णु और भगवान ब्रह्मा के बीच यह बहस छिड़ी कि दोनों में से कौनअधिक श्रेष्ठ एवं शक्तिशाली है और कौन सर्वोच्च सृजनकर्ता है। दोनों ही सर्वोच्च शक्ति का प्रतिनिधित्व करते हैं अतः इसका कोई हल ना निकल सका।

तभी वहाँ भगवान शिव एक लिंगाकार प्रकाश के स्तम्भ के रूप में अवतरित हुए और उनके समक्ष एक अनादि, और गंभीरतम स्वर स्फुरित हुआ जिसके माध्यम से उन दोनों सर्वोच्च सत्ता को प्रतिबिंबित करने वाली शक्तियों के सामने यह शर्त रखी गयी कि आप दोनों में से जो भी इसका आदि या अंत खोज के मुझे बताएगा, उसी को सर्वोच्च माना जायेगा।

भगवान ब्रह्मा और भगवान विष्णु, उस परम अद्भुत प्रकाश स्तम्भ के दोनों छोर को खोजने अलग-अलग निकल गए परंतु उस प्रकाश के स्तम्भ का आदि या अंत ना तो भगवान विष्णु और ना ही भगवान ब्रह्मा ढूँढ पाए क्योंकि वह स्तम्भ अनादि था।

शिवलिंग की उत्पत्ति कैसे हुई

इस प्रकार से उन दोनों सर्वोच्च सत्ता की प्रतीक शक्तियों को, भगवान शिव के ‘सर्वोच्च शक्ति के वास्तविक आश्रय स्थल’ के होने का अनुभव हुआ। और यह अनुभव होने के बाद उन्हें इस बहस में व्यर्थ में ही पड़ने का भी एहसास हुआ। इसके पश्चात उन्होंने शिवलिंग के स्वरुप वाले उस महान प्रकाश के स्तम्भ को नमन किया।

भगवान शिव ने पृथ्वी पर भी महान ऋषियों और तपस्वियों को अपने इस दिव्य रूप के दर्शन दिए और इसी तरह प्राचीन काल से शिवलिंग की पूजा होती चली आ रही है। देखिए अथर्ववेद में शिवलिंग के बारे में कितना सुंदर वर्णन किया गया है (अथर्ववेद कांड 10 सूक्त 7 श्लोक 35):

स्कम्भो दाधार द्यावापृथिवी उभे इमे स्कम्भो दाधारोर्वन्तरिक्षम् । स्कम्भो दाधार प्रदिशः षडुर्वीः स्कम्भ इदं विश्वं भुवनमा विवेश ।।

अर्थात: स्तंभ ने स्वर्ग, धरती और धरती के वातावरण को थाम रखा है। स्तंभ ने 6 दिशाओं को थाम रखा है और यह स्तंभ ही संपूर्ण ब्रह्मांड में फैला हुआ है।

शिवलिंग के अनादि स्वरूप का आध्यात्मिक विश्लेषण

शिवलिंग की उत्पत्ति के बारे में भगवान विष्णु और भगवान ब्रह्मा के बीच बहस की कथा का हमें आध्यात्मिक पहलू भी समझना चाहिए। इससे एक प्रश्न यह उठ सकता है कि क्या हमारी सर्वोच्च ईश्वरीय शक्तियाँ जो संसार को चला रही हैं, इतनी तुच्छ सी बहस में फंसेंगी? आप गहरायी से सोचेंगे तो उत्तर पायेंगे, नहीं।

किन्तु सर्वोच्च ईश्वरीय शक्तियों के बीच बहस से एक महान कार्य हुआ, जिसने इस अखिल विश्व ब्रह्माण्ड को समस्त विमाओं में व्याप्त कर रखा है, वह अद्भुत प्रकाश प्रकट हुआ अर्थात ब्रह्माण्ड में सबके हित के लिए भगवान शिव के ब्रह्म स्वरुप शिवलिंग के दर्शन हुए। वास्तव में ईश्वरीय शक्तियों के बीच यह बहस प्रभु की लीला का ही एक हिस्सा है और एक महान कार्य के निमित्त है, जिसमें हम मनुष्यों की तरह कोई अहं भाव नहीं है।

एक दूसरा पहलू यह भी हो सकता है कि प्राचीन ऋषि महर्षियों ने शिवलिंग का माहात्म्य समझाने के लिए इस कथा का सहारा लिया हो। यहाँ यह महत्वपूर्ण नहीं है कि यह कथा झूठी है या सच्ची परंतु दोनों ही सूरतों में शिवलिंग का स्वयंभू एवं अनादि स्वरुप सिद्ध होता है।

शिवलिंग भगवान शंकर का ही ब्रह्म रूप (जिसका अर्थ है सर्वोच्च ईश्वरीय शक्ति, यहाँ इसका तात्पर्य भगवान ब्रह्मा जी से नहीं है) माना जाता है और उनकी शक्तियाँ और स्वरुप इतना विशाल है कि यह मानव शरीर एवं इन्द्रियों से समझ में आने वाला विषय नहीं है।

परंतु हमारे प्राचीन ऋषि महर्षियों ने इस पर अपनी सर्वोच्च तपस्या से प्राप्त ज्ञान रूपी निधि में हमें जो बताया हुआ है उसको आध्यात्मिकता के पैमाने पर ही परखा जा सकता है। हम सभी जानते हैं कि जहाँ भगवान शिव सबसे बड़े संहारक हैं, वहीँ सबसे सरल हृदय और आसानी से प्रसन्न होने वाले भोले बाबा भी वही हैं।

वो सर्वशक्तिमान महाकाल हैं, इसलिए जैसे हम ईश्वरीय शक्ति के बारे में यह कहते हैं कि एक शक्ति है जो दुनिया को चला रही है, उसी प्रकार भगवान भोलेनाथ भी सभी देवों में सबसे ऊपर हैं। इस आधार पर शिवलिंग भी एक ऐसी सर्वोच्च शक्ति है जिसका न आदि है और ना ही कोई अंत जो स्वयंभू अर्थात अपने-आप ही सभी मनुष्यों के हितार्थ प्रकट हुआ था।

शिवलिंग की पूजा कब से शुरू हुई?

वैसे तो पुरातत्वविदों के अनुसार, सिंधु घाटी सभ्यता के मोहनजोदड़ो और हड़प्पा के काल खंड में भी शिवलिंग पाए गए हैं, जिससे पता चलता है कि भारत में शिवलिंग की पूजा 3500 ईसा पूर्व यानी आज से लगभग साढ़े 5 हज़ार साल पहले की प्राचीनतम सभ्यताओं में भी होती थी।

हाँलाकि शिवलिंग अनादि काल से है, परंतु उत्तराखंड की एक प्राचीन हिन्दू मान्यता के अनुसार मंदिरों में शिवलिंग की पूजा उत्तराखंड के अल्मोड़ा में स्थित जागेश्वर धाम से शुरू हुई मानी जाती है। यह मंदिर 12 ज्योतिर्लिंगों में से नहीं है परंतु इसकी महत्ता वैसी ही मानी जाती है।

जागेश्वर धाम में 124 मंदिर हैं जो (आजकल के वामपंथी इतहास्कारों के अनुसार) 7वीं शताब्दी के गुप्त काल में बने माने जाते हैं। शिव पुराण में 64 ज्योतिर्लिंगों का वर्णन मिलता है, जिसमें से 12 ज्योतिर्लिंगों का श्रद्धालुओं के बीच विशेष माहात्म्य (यानी आध्यात्मिक महत्त्व) है।

हर एक ज्योतिर्लिंग भगवान शिव के अलग रूप का प्रतिनिधित्व करता है और उनके इन्हीं अलग-अलग स्वरूपों से जुड़ी हर एक ज्योतिर्लिंग की स्थापना की कहानी है। पुराणों में वर्णित है कि इन ज्योतिर्लिंगों की स्थापना किसी ना किसी देवता या अवतार द्वारा स्वयं की गयी थी।

कई बार दूर देश के आक्रमणकारियों के द्वारा इन मंदिरों को नष्ट करने और लूटने की कोशिशें करी गयी थी पर हर बार किसी राजा या संत ने इनका जीर्णोद्धार (मरम्मत) कराया। आदि शंकराचार्य ने भी इन ज्योतिर्लिंगों के बारे में वर्णन किया था।

इस प्रकार शिवलिंग में शिव और शक्ति दोनों का संगम है और यह भगवान शिव के अर्धनारीश्वर रूप का भी प्रतीक है। शिवलिंग का विधि-विधान से नित्य पूजन करिए क्योंकि शिव ही सबके मूल हैं और वो कष्टों को हरने वाले भोले बाबा हैं जो सबसे जल्दी प्रसन्न हो जाते हैं।